Untitled

बृन्दाबनरे गो ! कृष्ण कले रास केळि,
देखि पुलकित तनु ..हुए मही-आळि ॥ (घोषा)

तुळ मास हरि बास ..दिने बनमाळी,
भानु-सुता सङ्गे कले ..निकुञ्जरे मेळि ॥
बृन्दाबनरे गो ! .... (१)

लळिता बिशाखा आदि .घेनि अर्घ्य्यथाळी,
आनन्दरे बन्दाइण .देले हुळहुळि ॥
बृन्दाबनरे गो ! .... (२)

आलट चामर धरि .केते ब्रजबाळी,
कर्पूर चूआ चन्दन .अङ्गे देले बोळि ॥
बृन्दाबनरे गो ! .... (३).

के बर्ण्णि पारिब मुखे .राधा-कृष्ण-केळि,
भिआइछन्ति य़े प्रभु .के पारिब कळि ॥
बृन्दाबनरे गो ! .... (४)

षोळ सस्र गोप-कन्या .रचिले मण्डळी,
दीन मनोहर माखे .चरणर धूळि ॥
बृन्दाबनरे गो ! .... (५)

[Source : 'Manohar Padyāvalī'
(Anthology of Oriya Lyrical Compositions of Poet Manohar Meher.)
Edited by : Dr. Harekrishna Meher.]

Rate this poem: 

Reviews

No reviews yet.