Untitled by Jagdish Gupt सरिता जल में पैर डाल कर आँखें मूंदे, शीश झुकाए सोच रही है कब से बादल ओढ़े घाटी। कितने तीखे अनुतापों को आघातों को सहते-सहते जाने कैसे असह दर्द के बाद- बन गई होगी पत्थर इस रसमय धरती की माटी। Rate this poem: Report SPAM Reviews Post review No reviews yet. Report violation Log in or register to post comments