Untitled

हिम-जलद, हिम-श्रृंग
हिम-छिव,
हिम-दिवस, हिम-रात,
हिम-पुलिन, हिम-पन्थ;
हिम-तरू,
हिम-क्षितिज, हिम-पात।

आँख ने
हिम-रूप को
जी-भर सहा है।
सब कहीं हिम है
मगर मन में अभी तक
स्पन्दनों का
उष्ण-जलवाही विभामय स्त्रोत
अविरल बह रहा है

हिम नहीं यह -
इन मनस्वी पत्थरों पर
निष्कलुष हो
जम गया सौन्दयर्।

यह हिमानी भी नहीं -
शान्त घाटी में
पिघल कर बह रही
अविराम पावनता।

आैर यह सरिता कि जैसे
स्नेह का उद्दाम कोमल पाश
अनगिनत प्रतिबम्ब रच कर
बाँधती हो भूमि से आकाश।

Rate this poem: 

Reviews

No reviews yet.